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"अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।”


(ऋग्वेद मन्त्र 1/1/1)


 

पातञ्जल योगदर्शनम - भूमिका-योग (ब्रह्म) विद्या भाग - ३

आज पढ़, सुन, रटकर बड़े-बड़े धार्मिक एवं राजनैतिक भाषणों की भरमार है परन्तु गुणों का आचरण नग्न प्रायः सा दीख रहा है। 

योग - विद्या जिसे प्राण विद्या एवं ब्रह्मविद्या भी कहते हैं प्रथम आचरण से ही इसका शुभारम्भ होता है। 


यही कारण है कि वर्तमान काल में इसको कठिन कहकर छोड़ दिया जाता है। कई साधू तो यहाँ तक कह देते हैं कि यह गृहाश्रम में अपनाने योग्य नहीं है जबकि सतयुग के मनु भगवान से लेकर दशरथ, जनक, विश्वामित्र एवं द्वापर के युधिष्ठिर आदि असंख्य गृहस्थी राजा एवं प्रत्येक प्रजा के सदस्यों ने इसको अपनाकर दीर्घायु सुखी जीवन, नीरोगता एवं मोक्ष प्राप्ति की है। 

इसका प्रमाण महाभारत एवं रामायण इत्यादि ग्रंथ प्रत्यक्ष रूप में दर्शनीय हैं। योग विद्या का पहला अंग यम है। जिसका प्रारंभ अहिंसा से होता है। 

 

योग- विद्या का प्रारंभ अहिंसा जैसे धार्मिक शब्द से है जो प्राणियों, जीव-जन्तुओं, पेड़ पौधों इत्यादि वनस्पतियों में परस्पर करुणामय सम्बन्ध स्थापित करता है। 

वस्तुतः योग-विद्या का जीवन में चरितार्थ होना ही वन एवं जीव-जन्तुओं तथा मानव की समस्याओं का समाधान स्वतः ही कर देता है। 

यही कारण है कि यज्ञ एवं योग- विद्या को चरितार्थ करने वाले ऋषियों तथा योगियों द्वारा यह भूमि पहले धन-धान्य पशु-पक्षी, वनस्पति द्वारा अलंकृत एवं सुशोभित थी। 

 

इस विद्या के लुप्त प्रायः होने से मनुष्य के मन की शांति, अहिंसा, धर्म पुरुषार्थ एवं सत्य विचार इत्यादि अनेक शुभ संस्कारों एवं गुणों में गिरावट आई है। 

 

पाँच यम एवं पाँच नियम इस विद्या के आठ अंगों में से प्रथम दो अंग हैं। 

 

इन्हीं दो अंगों में ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान् जगत प्रसिद्ध गुण हैं। 

यह गुण मानव जीवन की प्रथम एवं परम् आवश्यकता हैं जिनके द्वारा जीवन सुसंस्कृत बनता है और इन्सान, इन्सान कहलाने योग्य होता है। 

योग विद्या की जीवन में कमी से आज इन गुणों में अत्यधिक कमी का दर्शन होता है। 

कहीं-कहीं तो इन गुणों एवं इस भाषा का ज्ञान भी समाज में दुर्लभ सा प्रतीत होता है।

महाभारत, वाल्मीकि, रामायण, तुलसीकृत रामायण इत्यादि हमारे अनेक इतिहास साक्षी हैं कि जब वेद एवं योग विद्या का आचरण मनुष्य जीवन में था तब सतयुग के मनु राजा से लेकर ययाति, अष्टक, भगीरथ, सागर, विश्वामित्र, हरिश्चन्द्र, जनक, दशरथ, भगवान राम, श्री कृष्ण एवं द्वापर युग के युधिष्ठिर जैसे राजाओं एवं इनकी प्रजा में कोई प्राणी न तो असन्तुष्ट था और न ही अल्पायु वाला था। सभी धार्मिक एवं प्रसन्न थे। 

 

वैदिक धर्म के कारण वनों एवं जीव-जन्तुओं की रक्षा व प्रसन्नता स्वयंमेव ही थी। 

यजुर्वेद के एक ही शब्द "अपा अन्तर्यागे" में कहा है कि हे मनुष्य तू योग साधना द्वारा स्वयं हर्षित होता हुआ दूसरों को भी हर्षित कर।

इसी परम्परा में ऋषि मुनि एवं योगियों तथा विद्वानों ने प्राणी मात्र का कष्ट दूर करके समान रूप से सबको आनन्द बांटा है। 

आज योग-विद्या एवं यज्ञ-विद्या के विरुद्ध केवल शब्दों द्वारा बाल की खाल निकालने में ही जीव, बह्म अनुभूति का प्रायः ढोंग रच रहा है। इस विषय में तुलसी ने बड़ा सुंदर कहा है :-

 

"मारग सोइ जा कहुँ जोई भावा। पडित सोइ जो गाल बजावा।।"

 

अर्थात् योग साधना एवं तप की पूंजी से रहित डींग मारने वाले को ही आज विद्वान बनाकर पूजा जा रहा है।

 

"योग-विद्या का स्वरूप"

 

आठ अंगों वाली योगविद्या का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है : यम पाँच हैं

 

1. अहिंसा-सब प्रकार से हर समय सब प्राणियों क अनिष्ट चिंतन न करना तथा सबसे द्रोह त्यागना।

 

2. सत्य-जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही जानना एवं सत्य भाषण इत्यादि।

 

3. अस्तेय-चोरी न करना

 

4. बह्मचर्य

 

5. अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना तथा अभिमान इत्यादि दोषों का त्याग।

 

 

योग का दूसरा अंग 'नियम' है। यह भी पाँच हैं।

 

1. शौच - शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता

 

2. संतोष - धर्मानुष्ठान एवं पुरुषार्थ द्वारा प्रसन्न रहना

 

3. तप-धर्मानुष्ठान एवं शुभ गुणों का आचरण करना।

 

4. स्वाध्याय-मोक्ष का उपदेश देने वाले सद्द्यन्थों का अध्ययन एवं परमेश्वर के नाम का जाप।

 

5. ईश्वर प्रणिधानम्-ईश्वर पर भरोसा अर्थात् प्रत्येक शुभ कर्म को ईश्वर में अर्पण करना।

 

योग के ऊपर कहे दो अंगों के दस गुणों को देखने पर यह बात सहज में ही समझ में आ जायेगी कि संसार के प्रत्येक मत मतांतरों में अधिकतर यही शब्द उनके धर्मग्रन्थों में विशेषतः वर्णित है। भारतवर्ष में भी अधिकतर साधु संत इन्हीं गुणों पर प्रवचन करते हैं परन्तु रखेद है कोई भी इन्हें योग-विद्या का अंग नहीं कहता।

 

योग का तीसरा अंग है 'आसन'

 

आसन-जिसमें सुख पूर्वक शरीर स्थिर हो।

 

प्राणायाम - श्वास और प्रश्वास को ज्ञान द्वारा रोकना।

 

प्रत्याहार - मन सहित इन्द्रियों पर संयम ।

 

धारणा - शरीरस्थ किसी भी एक स्थान जैसे नाभि, हृदय, मस्तक एवं नासाये इत्यादि में वृत्ति को स्थिर करना।

 

ध्यान- ईश्वर के अतिरिक्त किसी का चिंतन न होना ध्यान है।

 

समाधि - इस अवस्था में केवल ईश्वर के आनन्द स्वरूप ज्ञान में आत्मा लीन हो जाता है।

 

ध्यान और समाधि में अन्तर केवल इतना ही है कि ध्यान अवस्था में ध्याता, ध्यान एवं ध्येय का भास होता है परन्तु समाधि अवस्था में केवल ईश्वर का ही भास होता है। आज के युग में इस विद्या के पूर्ण आठों अंगों को कोई बिरला ही अपनाता है।

 

वस्तुतः विरोध में ही अधिक लिखा-पढ़ा देखा गया है। अधिकतर प्रवचन भी साधु संतों द्वारा ऊपर कहे योग के अंगों पर अपनी सुविधानुसार किया जाता है परन्तु योग शब्द का प्रयोग दुर्लभ सा हो गया है।


 

सत्य तो यह है कि चारों वेदों से निकली इस योग - विद्या के द्वारा ही चित्त की पाँच दुःख देने वाली वृत्तियों को निरुद्ध करके ही अन्त में परमेश्वर का दर्शन संभव होता है। वेद स्वयं कहता है कि ऋग्वेद (1/164/16) वेद मंत्रों में जो रहस्य भरा हुआ है उसे कोई सूक्ष्मदर्शी, योगी या मन्त्र दृष्टा ऋषि ही स्पष्ट रूप से देख सकता है।

 

स्त्रियः सतीस्ताँ उ में पुंस आहुः पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः। 

कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात्स पित्तुष्पितासत् ॥ ऋग्वेद वेद (1/164/16)


 

चारों वेद ही इस योग विद्या की जननी हैं। वस्तुतः वेद विद्या में यह ज्ञान परमेश्वर अपनी सामर्थ्य से सृष्टि रचना के समय चार ऋषियों के हृदय में प्रकट करता है और इस वेद वाणी को भीष्म भी परमेश्वर की निःश्वास भूतवाणी कहते हैं। इन्हीं वेदों में ही ईश्वर के द्वारा वेद विद्या का वर्णन है। देखिए :-

 

यजुर्वेद मंत्र 7/4

 

"उपयामगृहीत असि अन्तः यच्छ"


 

उपयामगृहीतो स्यन्तर्यच्छ मघवन्पाहि सोमम् । उरुष्य राय एषो यजस्व ॥  (यजुर्वेद मंत्र 7/4)

 

अर्थ :- उपयाम अर्थात् योग के आठ अंग यम नियम इत्यादि को कहते हैं। इस मंत्र में परमेश्वर मनुष्य को योग विद्या का उपदेश करते हुए कहते हैं कि हे मनुष्य तू यम इत्यादि योग के अंगों को ग्रहण करने वाला (असि) है। 

"अन्तः यच्छ" का अर्थ है शरीर के अंदर जो प्राण हैं उनका प्राणायाम क्रिया से अंदर निग्रह कर। इसी मंत्र में आगे कहा कि हे जीव योगाभ्यास द्वारा योग सिद्धि एवं योग रुपी धन "मोक्ष" की रक्षा कर। 

अर्थात् योग विद्या द्वारा संसार में मोक्ष प्राप्ति की परंपरा एवं लक्ष्य स्थापित रहना चाहिए। खेद है कि आज भौतिकवाद की चमक-दमक । फलस्वरूप पुरुषार्थ में कमी आने से यह योग-विद्या की परंपरा मृतप्रायः सी हो गई है।

संसार के विद्वानों की सर्वसम्मति से मान्यता है कि योग विद्या ही जीव के लिये मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है। मोक्ष का अर्थ भावी कर्मबन्धनों से हटना है। तभी मोक्ष का सुख प्राप्त होता है।

 

योगशास्त्र में कहा भी है- "हेयम दुखं वं अनागतम्" इस सूत्र का भावार्थ है कि जो दुख अभी आये नहीं हैं परन्तु जीवन में कभी भी भविष्य में भोगने के लिए आ सकते हैं, उन भविष्य में आने वाले दुःखों को योग विद्या द्वारा नाश कर दो। जब दुःखों का नाश हो जायेगा तब प्राणी मोक्ष का सुख प्राप्त कर लेगा।

वैदिक एवं शास्त्रीय नियम द्वारा ही भाग्य का स्वयं निर्माण किया जाता है। 

 

स्वयं दीर्घआयु की जाती है एवं ऊपर कहे पुरुषार्थ द्वारा स्वयं मोक्ष का सुख प्राप्त किया जाता है। इसी योग विद्या से आने वाले समस्त कर्मों का नाश किया जाता है।

संसार का प्रत्येक प्राणी सुरख की ही इच्छा करता है। दुःख की इच्छा कोई भी नहीं करता। योग विद्या द्वारा समस्त कर्मबन्धनों का दुःखों का नाश हो जाता है।

यही मोक्ष का सुख है। 

सांख्य शास्त्र के रचयिता कपिल मुनि ने भी कहा :-

 

"उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः।"

 

(सां० 1/5)

 

अर्थात् वेद ने मोक्ष के सुख को सबसे उत्तम सुख कहा है। शरीर में रहने वाला जीवात्मा प्रकृति में रचे सांसारिक पदार्थों एवं चमक दमक में फंसकर अविवेकी हो गया है।

इस प्रकार यह जीव कर्मबन्धनों में फंस गया है और अपना स्वरूप भूल गया है। 

 

आज अपने स्वरूप को जानने के लिए पढ़, सुन, स्टकर लम्बे लम्बे भाषण तथा रोचक कथाएँ, दृष्टान्त इत्यादि दिये जाते हैं। यह ईश्वर ही जानता है कि सुनाने वालों एवं सुनने वालों को इस प्रकार का ज्ञान हो जाता है अथवा नहीं। 

 

परन्तु वैदिक एवं शास्त्रीय नियम अनुसार जब योग द्वारा चित्त की वृत्तियों को निरुद्ध किया जाता है तभी जीवात्मा का अविवेक नाश होता है और वह अपने स्वरुप में स्थित होता है। यह सत्य योगशास्त्र के पहले अध्याय के दूसरे एवं तीसरे सूत्र में दर्शाया गया है। 

 

 

यही नहीं चारों वेद, छः शास्त्र, उपनिषद् एवं प्रत्येक सद्यन्थ में इसी सत्य का उल्लेख है। अतः वर्तमान काल में कथनी छोड़ कर पुरुषार्थी होते हुए प्रत्येक प्राणी को विद्याभ्यास यज्ञ इत्यादि एवं योगाभ्यास को गृहाश्रम में अपने पूर्वजों की भांति अपनाकर शुभ कर्म करते हुए मोक्ष के सुख की ओर अग्रसर होना चाहिए।


…जारी रहेगा।