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 "सदसरपतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधामयासिषम् ।।"


(ऋग्वेद मन्त्र 1/18/6)


 

 

 


 

पातञ्जल योगदर्शनम - भूमिका-योग (ब्रह्म) विद्या भाग - २

सुख तब प्राप्त होता है जब दुःख न आए और दुखों का नाश योग विद्या द्वारा करके तब सुख प्राप्त होता है। जैसा कि श्री गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा: योगो भवति दुःखहा अर्थात योगाभ्यास दुःख का हनन करने वाला होता है। 

इसी छठे अध्याय में गीता में ध्यान योग के साधनों का वर्णन करते हुए 10 से 15 श्लोकों में कहा 

(1) ध्यान को सतत् करना 

(2) ध्यान को एकान्त (कमरे इत्यादि) में करना 

(3) अकेले करना 

(4) यतचित्तात्मा या इन्द्रियों को वश में करना 

(5) वासनाओं से रहित होना 

(6) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक भौतिक वस्तुओं का संचय न करना वरन् त्याग करना 

(7) आसन पर बैठकर ध्यान लगाना 

(8) एकाग्रता करना 

(9) भयरहित होना 

(10) ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना 

(11) भगवान में चित्त लगाना एवं ऐसा करके नियमित जीवन व्यतीत करना। 

यह योग विद्या के आठ अंगो में से सातवें अंग ध्यान योग का संक्षेप में यहां वर्णन है। 

इसी योग विद्या को चौथे अध्याय प्रथम पाद वेदान्त शास्त्र में व्यास मुनि ने सातवें एवं आंठवे सूत्र में क्रमशः कहा:- "आसीनः सम्भवात्" उपासना आसन पर करनी चाहिये एवं "ध्यानाच्च" ध्यान द्वारा भी यही निश्चय होता है। 

तो यह आसन, प्राणायाम ध्यान धारणा इत्यादि योग के अगों का ज्ञान प्रत्येक आश्रम में (गृहस्थ इत्यादि) सब नरनारी का छोटे बड़ों को सुख पूर्वक जीवन तथा रोग रहित जीवन व्यतीत करने के लिए परम आवश्यक है क्योंकि केवल धन संचय, विवाह आदि में सुख नहीं है। होता तो रावण, दुर्योधन आदि को भी धन से सुख मिलता किन्तु नहीं मिला। 

तुलसी ने श्री राम के लिए उत्तरकाण्ड 23 वें दोहे की अगली ही चौपाई में कहा :-

 

"कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कह दीन्हें। 

श्रुति पथ पालक धर्मधुरन्धर। गुनातीत अरू भोग पुरंदर।।

 

अर्थात्। श्री राम ने करोड़ों वाजिमेध (अश्वमेघ यज्ञ) यज्ञ किये और द्विज, विद्वानों को अनेक दान दिए।

श्री राम जी ने मनु भगवान रचित मनुस्मृति के इस श्लोक को अपने जीवन में चरितार्थ किया।

 

सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥ १०० ॥

 

(मनु स्मृ० अध्याय » 12; सूत्र » 100)

 

अर्थात् वेदशास्त्र का जानने वाला पुरुष सेनापति के अधिकार और राज्य और दंड देने के पद और सब प्रजा पर अधिपत्य (चक्रवर्ती राज्य) के योग्य होता है।

तथा श्री राम जी स्वयं वेद एवं योग के ज्ञाता थे जिनके प्रथम पूर्वज स्वयं मनु भगवान थे जो पृथ्वी के प्रथम चक्रवर्ती राजा बने। 

मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए। इक्ष्वाकु वंश में अनेक वेदज्ञ एवं योग विद्या जानने वाले धर्मात्मा, "राजा हुए जैसे त्रिशंकु, ध्रुवसन्धि, भरत, असित। 

राजा असित की दो पत्नियां थी। सौत के गर्भ को नष्ट करने के लिए एक ने दूसरी को विष दे दिया। विष सहित पुत्र उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सगर हुआ। 

सगर की पीढ़ी में आगे दिलीप एवं भगीरथ जैसे महान प्रतापी राजा हुए। सब वेदज्ञ एवं योगविद्या जानने वाले हुए। 

तभी भागीरथ ने महान वेद एवं योगविद्या धारण करके कठोर तप द्वारा पृथ्वी पर गंगा को प्रगट किया। अर्थात् वह गृहस्थी योगी थे। 

इसी वंश में वेदज्ञ राजा जो महान धर्मात्मा थे अम्बरीष तथा इनके पुत्र सत्यपराक्रमी नहुष एवं ययाति हुए। नहुष पुत्र ययाति ने अपने वेद एवं तपोबल द्वारा प्रजापालन करते हुए मोक्ष प्राप्त किया।

 

इनके पुत्र नाभाग, नाभाग के पुत्र अज तथा अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए। दशरथ पुत्र भगवान श्री राम सर्वविदित हैं। 

वाल्मीकि रामायण में चौथे सर्ग में दशरथ महाराज के विषय में कहा :-

 

"तस्यां पुर्यामयोध्यायां वेदवित्सर्वसंग्रहः। दशरथो महातेजाः वसञ्जगदपालयत्"।

 

अर्थात् उस अयोध्या नगरी में वेदार्थ (वेदों में योगविद्या तथा अन्य विद्याओं को अर्थ सहित जानने वाले) एवं प्रत्येक वस्तुओं से परिपूर्ण महातेजस्वी राजा दशरथ प्रजा का पालन करते थे। 

आगे वर्णन है कि सब मनुष्य धर्मात्मा, वेद एवं योग विद्या को सुनने वाले, गृहस्थ में अग्निहोत्र करने वाले, तथा धनधान्य से परिपूर्ण महर्षियों के समान निर्मल थे। 

यह सब कुछ था हमारे महान पूर्वजों द्वारा जीवन में धारण की हुई वेद एवं योग विद्या का पुण्य प्रताप । 

 

आज भी भारतवर्ष में पूर्वजों की भांति नेता एवं प्रजा इस विद्या के वास्तविक स्वरूप को समझकर यदि जीवन में धारण कर लें तो राम राज्य आ सकता है और प्रत्येक प्राणी निरोग, सुरवी, सम्पन्न, दीर्घायु एवं मोक्ष तक को वरण करके जीवन का ध्येय प्राप्ति कर सकता है, विद्या जीवन का ध्येय है। 

अतः विद्या से हीन जीव को सुख की प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है। गुरुनानक जैसे महान संत ने श्री गुरुवाणी में कहा:-

 

"नानक दुखिया सब संसार"। 

 

समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः ।

आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वन्दूतः कविरसि प्रचेताः ॥ (यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 25)

 

यजुर्वेद के अ0 29 मंत्र 25 में कहा:-

 

जैसे अग्नि दीपक आदि के रूप में घरों को प्रकाशित करता है वैसे ही विद्या द्वारा गुण धारण करके सबसे मित्रता का व्यवहार करने वाला ही मनुष्य/राजा धर्मात्मा होता है। 

 

और विद्या प्राप्ति का साधन योगशास्त्र के साधन पाद में महर्षि पताञ्जलि ने प्रथम सूत्र में कहा:-

 

“तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः” ||

 

अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर भक्ति ही को क्रियायोग कहते हैं। यह सब विद्या पूर्ण आचार्य गुरु से प्राप्त होती है। और यह योग विद्या पूर्णविद्या के स्रोत वेदों से निकली। श्री राम स्वयं वेद एवं योग मार्ग का अनुसरण करने वाले थे।

 

जैसा ऊपर की चौपाई में विदित है कि उन्होंने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किये। यज्ञ के संदर्भ में अश्व का अर्थ घोड़ा नहीं है। शतपथ ब्राह्मणग्रंथ में कहा:- "अश्वै वा राष्ट्र" अर्थात् अश्व का यहाँ अर्थ राष्ट्र है। अश्वमेध यज्ञ पूरे राष्ट्र के हित के लिए किया जाता है। जैसे वेदमन्त्रों में यज्ञ की व्याख्या में पढ़ा था कि यज्ञ का अर्थ है देवपूजा, संगतिकरण एवं दान। तो श्री राम ने इन तीनों ही गुणों को धारण किया। जो वेद विद्या एवं गुरू वशिष्ठ से योग विद्या प्राप्त करते हुए प्राप्त किये। 

 

देवपूजा में उन्होंने मातापिता, अतिथि एवं आचार्य की सेवा की। संगतिकरण में गुरुवशिष्ठ, विश्वामित्र तथा भारद्वाज जैसे अनेकों ऋषियों, मुनियों की सेवा करके उनको तृप्त किया। एवं उनका संग करके विद्या लाभ प्राप्त किया। स्वयं अनेकों दान किये। 

 

वाल्मीकि जी ने प्रथम सर्ग श्लोक 18वें में स्वयं उनके विषय में कहा:- "धनदेन समस्त्यागे" अर्थात् दान देने में कुबेर के समान थे। यह सब शुभ कर्म करके उन्होंने संसार के सामने विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया, नहीं तो वह स्वयं भगवान थे। उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं थी। 

 

जैसे गीता के तीसरे अध्याय श्लोक 22वें में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ मेरे लिए तीनों लोकों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जो करना आवश्यक हो परन्तु मैं फिर भी कर्म में लगा रहता हूं। 

 

आगे कहा यदि मैं कर्म करना छोड़ दूं तो यह सब लोक नष्ट हो जाएं। यहां यह आशंका उठ सकती है कि योगविद्या से ऊपर लिखी बातों का क्या संबंध है? हां है। 

 

क्योंकि पूर्ण योग विद्या के आठ अंग हैं और हैं भी वेदों में। उसमें पहला यम दूसरा नियम है जिसका विस्तार आगे करेंगे। 

यहां थोड़े से में देखें कि यम पांच हैं:- 

(1) अहिंसा 

(2) सत्य 

(3) अस्तेय 

(4) ब्रह्मचर्य एवं 

(5) अपरिग्रह। 

बौद्ध मत ने अहिंसा को अधिक अपनाया। जैन धर्म ने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य इत्यादि। 

ऐसे ही हमारी पृथ्वी के सब धर्म ग्रंथों में इस विद्या का उल्लेख है। परन्तु यहां थोड़ा सा संकेत केवल अपरिग्रह पर देखें। अपरिग्रह का तात्पर्य है- त्याग। 

त्याग तभी हो सकता है जब जीव दान करे अर्थात आवश्यकता से अधिक वस्तु को ग्रहण न करे। तो भगवान राम मर्यादा में रहकर इस दान जैसे गुण को महत्त्व देते थे। योग विद्या में मस्तिष्क गत गुहा का विषेश स्थान है। इसको वेदों में एंव गीता में मूर्धा कहा है। 

सतों की भाषा में इसको दसवां द्वार कहते हैं। श्री गुरुवाणी में इस योग विद्या के स्थान का वर्णन इस प्रकार है। नौ दर ठाके धावतु रहाये दसवें घर निज वासा पाये औथे अनहद शबद बजे दिन राती गुरुमति शब्द सुनावणियां ।

 

अर्थात माथे के नीचे शरीर के नो द्वार हैं, आंख, कान, इत्यादि। और दसवां द्वार इन नो द्वारों से ऊपर दोनों भवों के बीच का स्थान है। इस स्थान पर वृति योग विद्या द्वारा पहुंचती है।

 

आज संसार में वन एवं जीव-जन्तुओं की कई जातियों का लुप्त होना, जो हमारी चिंताओं का कारण बना हुआ है। उसमें हमें योग - विद्या का लुप्त प्रायः होना भी गंभीरता से जोड़ लेना चाहिए। किसी समय यह भारत भूमि ऋषियों-मुनियों तथा तपस्वी विद्वानों एवं योगियों के ज्ञान द्वारा उपदेशित होकर यज्ञ एवं योग-विद्या से अलंकृत वा सुशोभित थी। 

सर्वत्र आनन्द का साम्राज्य था। 

 

आज विद्या के अभाव में प्राणी-मात्र की दुर्दशा का चहुँ-दिश बोलबाला है। योग-विद्या के अभाव में अविद्यादि क्लेश पृथ्वी पर फलते फूलते जा रहे हैं। 

दूसरी ओर वेद से उत्पन्न योग - विद्या मृत प्रायः सी बन कर रह गई है। 

अविद्या का अर्थ योगशास्त्र में इस प्रकार कहा है- जब मनुष्य को अनात्म (जड़) में आत्मा (चेतन) का बोध हो, दूसरा अपवित्र पदार्थ पवित्र लगने लगे, तीसरा अनित्य ही नित्य लगे अर्थात् अविनाशी ही नाशवान प्रतीत हो एवं दुःख में ही सुख का बोध हो तो समझो मनुष्य अविद्या रूपी क्लेश से ग्रस्त है। 

 

इस अविद्या के ही परिणाम स्वरुप बाल-विवाह, भ्रष्टाचार, बंधुआ मज़दूर, नारी गरिमा को ठेस, चोरी डकैती, भुखमरी, गरीबी, वोटों की राजनीति, सुशिक्षा की कमी, अपराधों में वृद्धि, हिंसा, माँस मदिरा एवं अत्यन्त भयंकर नशीले पदार्थों का सेवन, ब्रह्मचर्य में गिरावट, शारीरिक और मानसिक अपवित्रता, अन्याय, ईर्ष्या, द्वेष, कड़वा बोल, निंदा, परदारोपसेवा, मत-मतातंरों एवं भाषाओं के झगड़े, आडम्बर जातिवाद, माता-पिता एवं वृद्धों की सेवा न करना, अंधविश्वास इत्यादि जैसे असंख्य रोग मानव जाति को प्रत्यक्ष में ही ग्रास बनाकर अल्पायु में मृत्यु एवं अशांति का वातावरण संजोए जा रहे हैं।

 

वन एवं जीव जन्तुओं के लुप्त होने से प्रदूषण, आरोग्य, वर्षा, अन्न एवं आयु इत्यादि में गिरावट एवं अनेक जीवन की समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। परन्तु योग-विद्या की कमी से तो अशांति एवं अल्पायु में मृत्यु इत्यादि असंख्य व्याधियों के बीच मानव का भद्र पुरुष की भांति जीवन यापन एक जटिल एवं अत्यंत दुःखद जैसी असंख्य ऊपर लिखित एवं अलिखित समस्याओं का बिन सुलझा धागों का एक गुच्छा बनकर रह गया है।


…जारी रहेगा।